नेपाल की राजधानी काठमांडू के त्रिभुवन इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर फ्लाइट के लैंड करते ही पहली नज़र बारिश पर गई.
बादल इतने नीचे और पास दिख रहे थे कि ऐसा लगा, मानो एयरपोर्ट की सुरक्षा की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी इन्हें मिली है.
एयरपोर्ट शायद एकमात्र ऐसा सरकारी प्रतिष्ठान था, जो 'जेन ज़ी' के विरोध-प्रदर्शन में सुरक्षित बचा था.
एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही ऐसा लगा कि यह किसी बड़े तूफ़ान के बाद की शांति है.
ख़ाली सड़कें, बंद दुकानें और हर तरफ़ सेना के नौजवानों का कड़ा पहरा. बीच-बीच में सेना की बख्तर बंद गाड़ियां सड़क पर भाग रही थीं.
ऐसा लगता है कि नेपाल का लोकतंत्र दो दिन के विरोध-प्रदर्शन में सरेंडर कर चुका है. नेताओं को जान बचाकर भागना पड़ा.
मंगलवार की रात दस बजे से पूरा नेपाल सेना के नियंत्रण में है.
एयरपोर्ट से हमलोग जिस गाड़ी से निकले, उसे सेना के जवानों ने कई जगह रोका और ख़ुद को आश्वस्त किया हम प्रेस से हैं.
साथ में बैठे नेपाल के एक दोस्त ने कहा- नेपाल में आपका स्वागत है.
'ज़ेन ज़ी' के विरोध प्रदर्शन में मीडिया भी निशाने पर था. नेपाल के प्रमुख अख़बार कांतिपुर के कार्यालय में आग लगाकर उसे किसी खंडहर में तब्दील कर दिया गया है.
'जेन ज़ी' के विरोध प्रदर्शन के दौरान नेपाल के पूर्व गृह मंत्री रबि लामीछाने के समर्थकों ने उन्हें जेल से बाहर निकाल लिया.
काठमांडू की नख्खू जेल के बाक़ी क़ैदी भी रबि लामीछाने के साथ बाहर हो गए. नेपाल की ज़्यादातर जेलों से क़ैदी फरार हो गए हैं.
काठमांडू के बानेश्वर इलाक़े में स्थित नेपाल की संसद से जलने की गंध अब भी आ रही है.
यह संसद नेपाल में 239 साल पुरानी राजशाही व्यवस्था ख़त्म होने का प्रतीक थी. यह संसद नेपाल में पिछले 17 सालों से लोकतंत्र की कहानी कह रही थी. लेकिन अब यहाँ से धुआँ उठ रहा है.
नेपाल के लोगों ने 2008 में राजशाही व्यवस्था को ख़त्म किया तब भी रॉयल पैलेस नरायणहिटी में आग नहीं लगाई थी. नारायणहिटी को म्यूजियम में तब्दील कर दिया गया था और कैंपस में गणतंत्र स्मारक बनाया गया था.
ऐसा लग रहा है कि इस हफ़्ते के सोमवार और मंगलवार पिछले 17 सालों के लोकतंत्र पर भारी पड़े हैं.
संसद की दीवारों पर देवनागरी में केपी ओली और प्रचंड के नाम से गालियां लिखी हैं. जब मैं दीवार पर लिखी इन गालियों को देख रहा था, तभी नेपाल के एक व्यक्ति नेपाली में कहा- ऐस्तो घृणा त राजा को विरुद्ध पनि थिअ न यानी ऐसी नफ़रत तो राजा को लेकर भी नहीं थी.
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जली हुई संसद के बाहर क़रीब 48 साल के दीपक आचार्य अपने बेटे के साथ खड़े हैं. हम कुछ महिलाओं से बात करने की कोशिश कर रहे थे कि वह हिन्दी सुन बुरी तरह से भड़क गए. दीपक ने अंग्रेज़ी में कहा- प्लीज स्टॉप इट. इंडियन मीडिया आर पार्ट ऑफ द मोदी प्रॉपेगैंडा.
दीपक ने ये बात इतनी तेज़ आवाज़ में कही कि आसपास लोग भी हमारी तरफ़ देखने लगे. दीपक की नाराज़गी को मैंने समझने की कोशिश की और उनसे थोड़ी लंबी बात हुई.
दीपक ने कहा, ''भारत का मीडिया गोदी मीडिया है. भारतीय मीडिया अपना लोकतंत्र तो कमज़ोर कर ही रहा है, हमारे लोकतंत्र की अंत्येष्टि में भी लगा है. नेपाल के लोग फ़ैसला करेंगे कि अब कौन प्रधानमंत्री बनेगा लेकिन हमें इंडियन मीडिया बता रहा है कि 'बीएचयू की बेटी' सुशीला कार्की बनेंगी पीएम. भारत का गोदी मीडिया में नेपाल में ऐसे आता है, जैसे यहाँ भी मोदी का ही राज है. न तो भारत की सरकार नेपाल को एक संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में देखती है और न ही वहाँ का मीडिया. भारतीय मीडिया के जो भी यहाँ पर रिपोर्टर हैं, उनकी पृष्ठभूमि देखिए तो आरएसएस और बीजेपी की होगी.''
बात केवल दीपक आचार्य की नहीं है. नेपाल में भारतीय मीडिया को लेकर ग़ुस्सा बहुत ही आम है. ये बातें कभी अफ़वाह की शक्ल में होती हैं तो कभी लोग घटनाओं को जोड़ने की कोशिश करते हैं.
यहाँ के लोग बाहरी साज़िश की भी बात कर रहे हैं और इनमें अमेरिका का भी नाम लिया जा रहा है.
जब हम संसद के बाहर खड़े थे तभी स्कूटी से दो नौजवान आए और वहाँ खड़े सैनिकों को पानी की बोतलें और बिस्कुट बाँटने लगे. एक ने अपना नाम किशन रौनियार बाताया और दूसरे ने सोमन तमांग.
इनसे पूछा कि आप पानी और बिस्कुट सेना के जवानों को क्यों दे रहे हैं तो तमांग ने कहा, ''ये हमारे देश की सेवा में लगे हैं. हमारे पास बहुत पैसे नहीं हैं लेकिन फिर भी हमने ऐसा करने का फ़ैसला किया. हम सैलून चलाते हैं.''
किशन रौनियार मधेसी हिन्दू हैं और तमांग पहाड़ी बौद्ध. दोनों विरोध-प्रदर्शन में शामिल थे. किशन को अब अफ़सोस है कि कुछ ज़्यादा तबाही हो गई है.
किशन ने कहा, ''हर सरकारी इमारत को आग के हवाले कर दिया गया. ये कुछ ज़्यादा ही हो गया. हमें अब बुरा लग रहा है. हम इस बात को लेकर भी आश्वस्त नहीं हैं कि अगली सरकार जो बनेगी वो भ्रष्टाचार मुक्त होगी या नहीं.''
जेन ज़ी प्रोटेस्ट में शामिल और भी लोगों को अब लग रहा है कि इमारतों को तहस-नहस करना ठीक नहीं था.
सोमवार को 19 नौजवानों के मारे जाने से सरकार विरोधी जो लहर बनी थी, वो मंगलवार की घटना के बाद थोड़ी कमज़ोर पड़ती दिख रही है. हालांकि नेपाल के सारे नेता अब भी नज़रबंद हैं.
शाम के तीन बजने वाले हैं और कर्फ्यू में थोड़ी ढील दी गई है. लोग घरों से बाहर निकल रहे हैं. हमलोग काठमांडू के बबरमहल इलाक़े में सड़क विभाग की इमारत के सामने खड़े हैं.
ये एक बहुत ही भव्य इमारत थी लेकिन अब इसकी खिड़कियों से धुआं निकल रहा है. धुएं के कारण घुटन भी है.
यहीं पर जेन ज़ी के तीन प्रदर्शनकारी निराजन कुंवर, विष्णु शर्मा और सुभाष शर्मा बहुत ही उदास मुद्रा में बैठे हैं. तीनों ग्रैजुएशन के स्टूडेंट हैं. निराजन कुंवर भी विरोध प्रदर्शन में ज़ख़्मी हुए थे.
निराजन कहते हैं, ''सरकारी इमारतों में आग हमने नहीं लगाई है. ये दूसरे लोग थे. कुछ ज़्यादा ही तबाही हो गई है. सच कहिए तो हमें अब अफ़सोस हो रहा है. नेपाल को इन इमारतों को बनाने में लंबा समय लगा था. हमें बहुत दुख हो रहा है.''
निराजन और विष्णु से पूछा कि दूसरे लोग कौन थे तो उन्होंने कहा कि रवि लामीछाने और आरपीपी के समर्थक थे. राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी (आरपीपी) को राजावादी कहा जाता है और यह दल नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग करता है.
निराजन और विष्णु से पूछा कि वे लोकतांत्रिक नेपाल चाहते हैं या राजशाही? सेक्युलर नेपाल चाहते हैं या हिन्दू राष्ट्र?
इन दोनों ने खुलकर कहा, राजशाही व्यवस्था और हिन्दू राष्ट्र. हालांकि वहीं खड़े सुभाष शर्मा ने कहा कि वह लोकतांत्रिक नेपाल का समर्थन करते हैं.

इस 'जेन ज़ी' प्रोटेस्ट में कोई सर्वमान्य नेता नहीं था, जो युवाओं को अच्छे-बुरे के बारे में मार्गदर्शन करता. इसलिए जिसे जो मन आया उसने वो किया.
युवाओं से बात कीजिए तो ये पूरी तरह से कन्फ्यूज दिखते हैं.
नेपाल में अब सिविल सरकार कैसे बनेगी, इसके लेकर चीज़ें बहुत स्पष्ट नहीं दिख रही हैं. नेपाल की चीफ़ जस्टिस रहीं सुशीला कार्की का नाम भले लिया जा रहा है लेकिन युवाओं के बीच इसपर सहमति नहीं दिख रही है.
गुरुवार को तो 'ज़ेन ज़ी' का एक धड़ा सुशीला कार्की के नाम के ख़िलाफ़ सेना मुख्यालय के बाहर विरोध प्रदर्शन भी कर रहा था.
'जेन ज़ी' के लोग काठमांडू के मेयर बालेन शाह को आगे आने के लिए कह रहे हैं लेकिन उनकी मांग है कि पहले संसद को विघटित किया जाए. लेकिन संसद को विघटित क्यों किया जाए और कैसे इसका जवाब संविधान में खोजा जाना बाक़ी है.
नेपाल दोराहे पर खड़ा है.
239 साल राजशाही में जीने वाले नेपाल के लोग 17 साल के लोकतंत्र को अब किस रूप में आगे बढ़ाएंगे, इस सवाल का मुकम्मल जवाब नहीं है.
नेपाल एक लैंडलॉक्ड देश है और ऐसा लग रहा है कि यहाँ का लोकतंत्र भी कई संकटों के घिर गया है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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